सहारनपुर में जो हुआ वह सामान्य नहीं था। अभी तो सावन भी चल रहा है और पावन रमजान का माह भी। प्रकाश पर्व भी तो अभी ही मनाया गया है। तो फिर इस प्रकार कि स्थिति निर्मित क्यों हुई। तीन लोगों की जान गई 50 लोग घायल हुए 100 से ज्यादा दुकाने जला दी गई...किसका नुकसान हुआ हमारा और सिर्फ हमारा। ना तो सरकार इसके लिए दोषी हो और नहीं समाज दोषी हम है जो हमेशा मुर्खों जैसी हरकत करते है। अगर इसी मसले पर शांति से बात हुई होती तो आज यह स्थिति निर्मित नहीं हुई होती। पर न हिन्दु मानने को तैयार हे न मुस्लिम अब नया मामला सिखों के साथ हो गया। कब आखिर कब सुधरेंगे हम। कब होगी चारों ओर शांति। या सिर्फ देश में इसी प्रकार चलता रहेगा। अंग्रेजों ने यह लड़ाई लगा दिए वे चले गये पर हम लड़ते रहे और लड़ रहे हैं। हम कभी याद नहीं करना चाहते उस लड़ाई को जब हम एक साथ उनसे लड़े और देश से उन्हें जाने को मजबुर कर दिए। आज हमें याद है तो सिर्फ कड़वाहट और सिर्फ कड़वाहट।
गुलामी के वक्त भले ही कलम से आजादी की लड़ाई लड़ी गई हो, लेकिन अब वह खुद गुलाम हो चुकी है। कार्पोरेट कंपनियां कलम के मालिक बन बैठे हैं। वहीं कुछ को सत्ता ने तो कुछ को विपक्ष ने खरीद लिया है। यह यूं नहीं हुआ, वक्त के साथ जब कलम कमजोर पड़ी तब ही Keyboard शक्तिशाली हुआ। फिर वह समय आ गया जब कलम दुकानों में बिकने लगी और उसी दुकान की शोभा बन बैठे Keyboard। साथ ही कलम की आजादी गुलामी में बदल गई। कलम के आजादी की लड़ाई आसान नहीं है, यह लड़ाई अब Keyboard से लड़नी होगी। पत्रकार