बुधवार, 16 नवंबर 2016

लड़ाई तो बंदुक से ही लड़ेंगे अब कोई अखबार न निकालो

वर्तमान दौर और परिस्थियां देखकर ऐसा महसूस होने लगा है कि मशहूर शायर अकबर इलाहबादी की लिखी लाइन “खींचों न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो” वर्तमान परिस्थिति में गलत साबित कर दिया है अखबार मालिकों और अंधाधूंध संचालित टीवी चैनलों ने। परिस्थिति अब अखबारों से नहीं सम्हली जा रही यह कहना भी गलत न होगा की इन परिस्थितियों के जनक ही अखबार हैं। अब तो लड़ाई बंदुक से लड़ी जाएगी। इसकी शुरुआत हलांकि हो चुकी है, लेकिन भटके हुए लोगों ने यह काम शुरू किया है। एक तरफ जहां नकस्लियों ने बंदुक उठाकर कचरा हो चुकी व्यस्था के विरोध में है तो वहीं बंदूक उठाए सेना के जवान व्यवस्था को सुधारने के लिए मर रहे हैं। अगर नक्सली अपने असली मुद्दे पर लड़ाई शुरू किए तो यह जायज और देश के लिए सबसे अच्छी बात हो सकती है। बस शुरूआत अच्छी करने वाले नक्सलियों के बीच में नेता अच्छे हो जाएं। या यू कहूं की कोई क्रांतिकारी विचारधारा वाला व्यक्ति की बात ये नक्सली मान ले। बंदूक के दम पर ही सत्ता करें, लेकिन काम देश की भलाई के लिए करें। देश में 100 जवान हैं तो उसमें 90 जवान गांव के किसानों के हैं, उन्हें मारना छोड़ दें मारना ही हैं तो उन 10 लोगों को मारे जो कुर्सी के भूखे हैं। जो उच्च पदों पर बैठकर हुकुमत चला रहे हैं। व्यवसाय कर रहे हैं। देश को बेंच रहे हैं। उन्हे मरना भी चाहिए। ऐसे कुत्तों की देश में जरूरत नहीं हैं। साथ ही नक्सली अगर मार भी रहे हैं तो भ्रष्ट लोगों को मारे। चाहे वह किसी भी मामले में भ्रष्ट हो। एक रुपए की भी रिश्वत लेता है तो साले का हाथ काट दो बस सही दिशा में काम करने की जरूरत हैं। नकस्ली हर जगह सही नहीं है सरकार की करतूत भी बहुत जगहों पर गलत है। न्यायालय सरकार के तलवे चाटते हुए फैसले सुना रहे हैं, पुलिस सरकारों की तलवे चाटते हुए बेकसुरों मार रही है इसका ताजा उदाहरण है मीना खलखो का मामला। बेकसूर को मारकर वाहवाही लूटी गई। व्यवस्था बदला है तो लड़ाई का तरीका भी बदलना होगा। जरूरत पड़े तो हथियार भी उठाना होगा। कब तक मरेगा किसान का बेटा अब तो शहंशाह के बेटा को मरना होगा। खुलकर कह सकते हैं कि लड़ाई तो अब बंदुक के दम पर ही लड़ना होगा अखबार कोई न निकालो।

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