शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

मूर्तियों के विसर्जन पर दारू और डीजे जरूरी क्या है

हिंदूओं का त्योहार कई रंगों और खुशियों को लेकर आता है। इसमें गणेश पूजा, दुर्गा पूजा, काली पूजा, सरस्वती पूजा प्राय: देखें तो ज्यादातर त्योहारों से पहले प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। इसको धूमधाम से मनाने के लिए लोग पहले ढोल, ताशों और नगाड़ों का उपयोग करते थे। यह मनमोहक हुआ करता था। आधुनिकता का दौर है, इलेक्ट्रानिक चीजें भरपूर उपलब्ध हैं वह भी सस्ते में। वर्तमान में देखने मिलता है कि लोग भूर्ति विसर्जन के मौके पर डीजे का उपयोग करते हैं। यह कितना जरूरी है। कुछ वर्षों से मूर्ति पूजा के दौरान मुझे रिपोर्टिंग करने का मौका मिला है। वहां एक बात अक्सर देखता हूं की तेज साउंड इसे मैं कानफोड़ू सांउंड कहू तो कोई आपत्ति नहीं है इसके बीच छोटे-छोटे बच्चे शराब पीकर लगातार डांस करते हैं। मूर्ति विसर्जन श्रद्धा और शांति के लिए लेकिन उसे प्रवाहित करने के दौरान शराब जो श्रद्धा उत्पन्न कर ही नहीं सकता और तेज साउंड डीजे जो शांति कभी फैला ही नहीं सकता। लोग आधुनिक हो रहे हैं ठीक है, लेकिन इस प्रकार की सभ्यता शुरू करना वह भी लोगे के चंदे पर यह सही नहीं। लोगों ने यही सब कुराफात देखकर चंदा देना कम भी किया है, लेकिन उनकी श्रद्धा हर बार उन्हें नहीं रोक पाती। 10 दिनों तक देवी-देवताओं को पूजा करने सर आंखो पर बैठाने के बाद उसे बेदर्दी के साथ नदी में डाल देना। उतनी बड़ी-बड़ी मूर्तियों को यह बड़ी बात हो सकती है। मैं न आस्तिक हूं न ही नास्तिक छोटी मूर्तियां पूजा के लिए रखी जाएं तो ज्यादा बेहतर होगा। शहर के विभिन्न चौकों से इनके एक साथ शोभायात्रा निकले तो ज्यादा बेहतर लगेगा। यह क्या कि जब डीजे वाला तय करेगा तब विसर्जन होगा। आस्था है तो धर्मग्रंथों के अनुसार समय पर प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाए। गणेश पूजा अभी बिता पितृ पक्ष में लोगों को प्रतिमाओं का विसर्जन करते हुए देखा। ठीक है विसर्जन में भीड़ नहीं मिली, लेकिन यह सही भी तो नहीं है न। अपने किसी रिस्तेदार के मृत्यु के बाद कितने दिनों तक पार्थिव शरीर को घर पर रखा जाता है। इन प्रतिमाओं में देवताओं का वास होता है। उनके चले जाने के बाद वह भी उसी पार्थिव शरीर की तरह हो जाता है। इसके नुकसान ही होते हैं फायदे नहीं। पूरी श्रद्धा तब ही खत्म हो जाती है। 

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